Kappela (Malyalam movie)



कहानी यह है कि कहानी रोमांचक है। कहानी यह है कि कहानी जैसी है, वैसी है। कहानी यह है कि एक लड़की है। प्यारी है। प्यार में है। इल्ज़ाम है कि लड़की अनुभवहीन है।

लड़की गांव की है। बारहवीं में फेल हो गई है। घर में बाप की सत्ता है और अभाव की छाया है। एक फोन है और एक रॉन्ग नंबर है। यही फोन और रॉन्ग नंबर मिलकर जो करते हैं वो लड़की के लिए आकर्षक है। उसका भरोसा है कि यह फैसला उसका अपना होना चाहिए। यही उसका रिबेलियन है और इसी की सच्चाई की पड़ताल करना उसकी ज़रूरत। लगता है कि सबकुछ प्यारा है, लेकिन नहीं है। कुछ नज़रों का धोखा है, नज़रिए का छलावा है, मगर रोमांच है, ऐक्शन है, सच से सामना है, रिएलिटी चेक का तमाचा और लड़की के कोमल गाल हैं। 



लेकिन लड़की को इतना नाइईव क्यों दिखाया ऐसा कहना विक्टिम ब्लेमिंग है। क्योंकि ऐसी कहानियां होती हैं। नाइईव न होना भी प्रिविलेज है जो बहुत सारे एलिमेंट्स से मिलकर बनता है। शुरू से डायरेक्टर आपको यह नहीं दिखा रहा था कि लड़की कितनी नाइईव है। वह आपको यह बता रहा था कि जिस भ्रम में दर्शक है, उसी भ्रम में नायिका है। जब भ्रम टूटता है तो दर्शक और नायिका दोनों का ही भ्रम टूटता है, ऐसे में दर्शक कौन होता है नायिका को नाइईव कहने वाला? लड़की शुरुआत में हुई स्टॉकिंग को प्यार के चलते इग्नोर कर देती है और अगर दर्शक के नाते आपने भी यही किया या आपको स्टॉकिंग नज़र ही नहीं आया तो तमाचा आपके गाल पर भी है। तमाचे सिर्फ तब नहीं लगने चाहिए जब लड़का अपराधी निकल जाए। तमाचा तो यही होना चाहिए कि प्यार की शुरुआत स्टॉकिंग से हो और आपको ठीक लगे। स्टॉकिंग और प्रेम का फर्क मालूम होना चाहिए। अगर कहानी के अंत ने आपको इसलिए निराश किया कि लड़की को उसका प्यार नहीं मिला तो आपको यह फर्क मालूम नहीं। प्रेम करने वालों तक को यह नहीं पता होता क्योंकि हम एक टॉक्सिक समाज में जीते हैं, जहाँ रिश्तों का टॉक्सिक होना तय है।

कहानी का अंत अगर आपके लिए सैटिस्फाइंग था तो आपको यह फर्क मालूम है। जब कहानी ख़त्म होती है तो दर्शक चेहरे पर वही मुस्कराहट लिए अपने फोन का स्क्रीन बंद करता है जिस मुस्कुराहट के साथ नायिका ने अंत में कहा था - 'मैं बता दूंगी। सही वक्त आने पर। मैं इधर ही हूँ।'  



तारीफ़ कहानी कहने के तरीके की तो होनी ही चाहिए और साथ ही साथ एक बढ़िया रोमांचक अनुभव देने की भी। अगर डायरेक्टर इसे एक प्रेम कहानी बना देता तो कई सवाल उठते। वैसे सवाल यह हो सकता है कि लड़की को बचाने वाला एक मर्द ही क्यों होगा। पर अगर मर्द कहीं प्रिविलेज्ड है तो बचा पाने की स्थिति में भी वही है। वो मर्द आता नहीं तब भी लड़की बच सकती थी, लेकिन कहानी को इतना तोड़कर देखेंगे तो जैसे कहानी कही जा रही है उसका मज़ा नहीं रहेगा। यह याद रखने की ज़रूरत है कि दो कॉन्ट्राडिक्शंस के बीच कहानी बुनी गई है और अगर यह प्रेम कहानी भी होती तो डैमसेल को डिस्ट्रेस से लड़का ही निकाल रहा होता। जहां च्वाइस ही लिमिटेड हो, वहां बस बातों भर से कुछ नहीं होता। कबीर सिंह में जब एक मेडिकल स्टूडेंट थप्पड़ खाकर ओके रह सकती है, तो यहाँ जेस्सी तो गांव की बारहवीं फेल लड़की है। उसके डिस्ट्रेस से हमदर्दी है मुझे। 




सबसे अच्छी बात यह है कि कहानी में नायिका तो है, पर नायक नहीं है। लड़की का हीरो कोई नहीं है। उसके साथ कुछ बुरा होता है। कुछ और बुरा होने से वो बच जाती है, एक लड़के की मदद से जो उसे बचाने के लिए वहाँ आया ही नहीं था। वो बदला लेने आया था क्योंकि उसकी टॉक्सिक मैस्कुलिनिटी हर्ट हो गई थी। यहाँ दोनों ही लड़के कुछ नहीं सीखते। सीखती सिर्फ लड़की है। समंदर के पानी को पैरों से छूती है, डूबते सूरज के सामने आँसू बहाती है और एक दर्द भरा सबक लेकर घर लौटती है।


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